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सखी

लिखूं तुम्हारे लिए सखी मैं,  इस जीवन का अंतिम गान। तुच्छ कवि की महाकल्पना  कर सके जिसपर अभिमान। मन ये चाहे टिस प्रेम कीआज तुम्हारे हृदय में भर दूँ। और अधरों के कंपन को शब्दों से सम्मोहित कर दूँ।  मधुर नहीं है मेरे स्वर पर, मैं छेडू कुछ ऐसी तान। भावनाएं हो जाए पंछी , हृदय मेरा गगन हो जाए । हसी तुम्हारी  खिली रहे जीवन मेरा मधुबन हो जाए। और चाहिए मुझे सखी क्या इससे बड़ा कोई सम्मान।

मसिहा

जब जब लोगो पर हुए अत्याचार लोगो ने लगाई गुहार सर पर कफन बांधे आया मसिहा और लडता रहा लोगो के लिए दिन रात । सहता रहा आघात पत्थरों के चुना जाता रहा दिवारों पर चढता रहा सुलियों पर छलनी होता रहा गोलियों से बार बार । लोग बने रहे तमाशाबिन बैठे रहे चुपचाप  छटपटाते हुए देखते रहे  मसिहा को जुल्म बढता रहा हर रोज। और जब  मर गया मसिहा लोग करने लगे इंतिजार फिर एक बार और किसी मसिहे की  मसिहाआएगा  ओर हमें बचाएगा बार- बार, बार- बार, बार- बार

चौपाया नहीं

मै ये दावा नहीं करता कि कभी लडखडाया नहीं। मगर ये इल्जाम गलत है कि मुझे चलना आया नहीं।। अक्सर गिर जाता हूँ क्यों कि किसी के इशारे पे नहीं चलता ल मै आदमी हूँ मेरे दोस्त कोई चौपाया नहीं।।