Thursday 20 October 2011

मेरी कविता !

ऐ मेरी कविता !
मैं सोचता हूँ लिख डालूं ,
तुम पर भी एक कविता !

रच डालूं
अपने बिखरे कल्पनाओं को
रंग डालूं
स्वप्निल इन्द्र धनुषी रंगों से,
तेरी चुनरी !

बिठाऊँ शब्दों की डोली में
और उतर लाऊँ
इस धरा पर !

किन्तु मन डरता है
ह्रदय सिहर जाता है ,
तुम्हे अपने घर लाते हुए !


की कहीं तुम टूट न जाओ
उन सपनों की तरह
तो बिखर गए टूट कर !

क्या-क्या करें ?


क्या-क्या  करें  ? क्या-क्या   न  करें  ?
हमने  उनपे  सब  छोड़ा  है  
जो  करना  है  वो  खुदा  करे  !

बचपन  की  उखड़ती  सांसे  है ,
ममता  की  बेबस  आँखें  है,
वो  फिर  भी  महलें  बनायेंगे ;
कोई  मरता  है  ,तो  मारा  करे   !

यहाँ   खून   से  आणता  सन्ति  है ,
तब  जाकर  रोटी  बनती  है ,
हर  दाने   पर  पहरे  बैठें  हैं ;
जिंगें  भूख  लगे  वो  दुवा  कर  !

जब  जुल्म    की  आंधी  चलती  है ;
इंसाफ  कुचल  दी  जाती  है ,
यहाँ  न्याय  गवाही  मांगेगी  ;
अन्याय  बहले  ही  हुआ  करे  !


यहाँ  सच्ची  हमेशा  हरता  है 
और  झूठ  ही  बजी  मरता  है  
प्रसाद  " मगर  सच  बोलेगा  ;
कोई  सुने  या  अनसुना  करे  !

मोल !



कभी जनता, कभी सरकार बिकता है ।
कभी कुर्सी , कभी दरबार  बिकता है ।
हर चीज है यहाँ बिकाऊ दोस्तों ;
कोई छुप कर, कोई सरेबाजार  बिकता है ।

कभी शहर-शहर ,कभी गाँव-गाँव  बिकता है ।
कोई किलो-किलो ,कोई पाव-पाव   बिकता है ।
हर चीज की अलग-अलग कीमत है मित्रों;
कोई कौड़ियों में,कोई करोडो के भाव  बिकता है ।

कही खून, कहीं पसीना आज  बिकता है ।
कहीं पत्थर कहीं सोना कहीं ताज  बिकता है ।
सब कुछ तो लोग खरीदते है यारों ;
तभी तो माँ-बहनों का लाज  बिकता है ।

कहीं खस्सू, कहीं खुजली, कहीं दाद  बिकता है ।
कभी दवा , कभी दारू, कभी इलाज  बिकता है ।
लोकतंत्र हो जाता है बीमार मेरे साथी ;
जब अखबार वालों का आवाज  बिकता है ।

कोई ख़ुशी-ख़ुशी, कोई होकर मजबूर  बिकता है ।
कोई अपनों के लिए,होकर दूर  बिकता है ।
तकदीर के तराजू में तूल जाता है हर आदमी 
 आदमी है तो  जिंदगी में जरुर  बिकता है ।
        
                                मथुरा  प्रसाद  वर्मा 'प्रसाद'

कर्तव्य पथ पर !


सिद्धांतो के जरजर सड़क पर 
पुराने सिलेपर की तरह '
बीना थके ,निरन्तर ;
घिस रहाँ हूँ !
तले वही हैं,
सिर्फ फीते बदल-बदल कर;
वक्त की बेरहम चक्की में
 पिस रहा हूँ !
शानदार हाइवे पर 
द्रुत गति से 
वे दौड़तें हैं ! 
 और मुझपर  कलंक जैसे ,
काले धुवें छोड़तें है !
मुझे पछाड़ते ,
 निज कर्कश स्वर में चिढातें है 
किन्तु कुछ दूर जाकर 
वो रुक जाते है !
मगर मैं ;
मगर मैं फिर भी चलता रहता हूँ ,
बिना थके निरंतर 
कछुए की चाल  से 
अपने कर्तव्य पथ पर !




कौन ले जाता है सबेरा छीन कर गावों से !


सूरज  निकलता रहा हर दिन 
हर दिन लाल होता रहा आकाश 
पक्षी चहकते रहे'
हवाएं चलती रही 
झूमती  रही डालियाँ ।

उठता रहा धुवां 
सुलगती रही चिमनियाँ
चीखते रहे भोंपू 
दौड़ता रहा सड़क।

मगर क्यों 
अब भी अँधेरा है 
मेरे गाँव में ?

गाँव की पगडंडीयां
क्यूँ नहीं सिख।पाई रेंगना ?
क्यूँ नहीं जले चूल्हे
 अब तक झोपड़ों में ?
उजाला क्यों नहीं आता 
आखिर गावों में ?

क्या कभी न आएगा सूरज 
गावों में ?
मैं चिंतित हूँ !
कौन ले जाता है सबेरा 
छीन कर गावों से ?

मथुरा प्रसाद वर्मा 'प्रसाद'

एक मुठ्ठी भूख !


मुझे  भूख   नहीं  है  ,
नहीं  चाहिए मुझे  रोटी  ! 

प्यासा नहीं हूँ मैं !
पानी भी  नहीं चाहिए ;

कोई दे सके तो दे मुझे ;
एक   मुठ्ठी   भूख !
और एक चुल्लू  प्यास!

भूख वो जाओ आदमी को
बनता है आदमी !
प्यास वो जो सिखाती है 
आदमी को आदमियत !

मैं लौट जाना चाहतो हूँ ;
फिर उसी बर्बरता के युग में !
जहाँ आदमी होता था नंगा ;
नहीं पहनता था कपडे !
और नहीं झांकता था वो ;
कपड़ों में ढके , अनढके तन को !

भूखा होता था आदमी ;
पर कभी नहीं खता था 
आदमी, आदमीं को !
नहीं पीता था तब कभी ;
प्यासा आदमी भी 
आदमी के खून को !  


गरीब आदमी क्या आदमी नहीं होते ?


एक गांव ! 
गांव में एक किसान !
किसान का पेट;
पेट में भूख !

भूख के लिए रोटी !
रोटी के लिए काम ! 
काम के लिए धरती ;
धरती में बने कारखाने! 

कारखाने आमिरों के 
आमिर बने आदमी 
आदमी से एक सवाल '
सवाल : गरीब आदमी,
 क्या आदमी नहीं  होते ?

आंखिर क्यों बदला बदला सा आज का इन्सान है ?


बचपन  है क्यू सहमा  सहमा ? 
क्यू ममता घबराई  है ?

बहाना के हंसी को  क्या  हो गई  है ?
वो किलकारी  कहाँ  खो  गई  है ?

क्यों हो गया है आँगन सुना ?
गलियां  क्यों  वीरान हुई ?

आतंकित है क्यों गाँव गाँव ?
इनसान  है क्यों खौफ  खाया   ?

वही धरती, वही माटी ,
वही सूरज ,वही चाँद है !

आंखिर क्यों बदला बदला सा  
आज  का   इन्सान  है ?

हर आदमी !


पेड़ के पत्तों सा  टूटता  हर आदमी ;
पल पल तनहाइयों में घुटता  हर आदमी !

पड़ रहे डाके   हर रोज़ अमन -चैन पर 
प्रति -छान  आसहय  सा लुटता  हर आदमी !

धर्म ,जाति,कौम, और ये उंच -नीच;  
जाने किस किस नाम से बाटता हर आदमी !

चरित्र और नैतिकता का गिरता हुआ मूल्य ;
कौड़ियों  के भाव  बिकता हर आदमी !

बदल रहा चहरे आदमी के हर रोज़ ;
हर पल आदमियत से भागता हर आदमी !

दिलों में हो रहे दरार क्यों आज कल ;
आदमी से आजकल क्यों रूठता हर आदमी !

भटके हुए रास्ते ,बे हिसाब आबादियाँ ;
रास्ते बरबादियों के पूछता  हर आदमी !

हो रहा दो-चार  हादसों से हर घडी ;
आदमी के भीड़ से जूझता हर आदमी!

तेरा नाम नहीं भूले !


हम  भूल   गए   सारी  दुनिया , वो  साम  नहीं  भूले ! 
खुद  को  भुला   दिया  मगर .  तेरा  नाम  नहीं  भूले  !

तेरी  जुल्फों  के  साये  में  गुजरे  वो चाँद  लम्हें ;
और  होठों  से  छलकती  वो जाम   नहीं  भूले !

वो  रोतों  की   ख़ामोशी  और चुपके  से   तेरा  आना   ;
वो गलियां  , वो रस्ते  , वो मुकाम  नहीं भूले !

एक  भूल  ही  सही , कभी   प्यार   किया  था  हमने  ;
उस   नाकाम  मुहब्बत  का अंजाम  नहीं भूले !

वो टूट  कर दिल  का सरेआम   बिखर   जाना ;
और खुद  पर  लगा  हर  इलज़ाम   नहीं  भूले.,

वो घुघट  की ओत  में  दुबक   कर  सिसकना ;
और नज़रों  का  आंखरी  सलाम  नहीं भूले !

आदमी के लिए


वो दुआ क्यूँ मांगे खुसी के लिए !
तेरा गम जिसे मिल  जाये जिंदगी के लिए !

सबसे  मिलते रहे गले मुहब्बत से मगर ;
इतनी नफ़रत कुयन रही हामी के लिए !

ऐ चाँद तू अब अपनी चांदनी सिमट ले;
हमने दिल जला रखा है रोशनी के लिए !

आसमान में जाकर वो फ़रिश्ते तो हो गए :
हम ही रह गए भला क्यूँ इस जमीं  के कुए ! 

किसी को बसा कर फिर उजाड़ देना ;
'प्रसाद' कितना  आसन है आदमी के लिए !
                                 मथुरा प्रसाद वर्मा 'प्रसाद'

आसमान में थूक !!


सरफरोशों की प्रजातियाँ विलुप्त हुईं ,
आंधियां तेज़ है मत अकड़, झुक !!
सर सलामत रहा तो फिर देखा जायेगा ;
सर उठाने  का वक्त  अभी आएगा रुक !!

महफ़िल  में मची है अभी कौओ की काँव-काँव;
कौन सुनेगा यहाँ कोयल की कुक !!

इसलिए की अखबारों की सुर्खियों में नाम हो ;
गिरेबान मत झांक , आसमान में थूक !!

शेर की दहाड़ अब पिंजरों में कैद है ;
कुत्ते की तरह  , भूक सके तो भूक !!

रोटियां जिनके लिए फकत खेलने  की चीज़ है;
वो क्या जाने किसी बच्चे  का  भूख  !!

आज कल मुह खोलन भी तो एक जुर्म हो गई है
झूठ न कह सको तो रहो सदा मूक !!

लो सबक अब भी उनकी मक्कारियों से ' प्रसाद'
जिनकी तिजोरी  में बंद है ज़माने का सुख !!

नहीं मिलता!


पैगाम  लिए  फिरता हूँ कोई दर नहीं मिलता ! 
भटकता  हूँ दर-दर मगर घर  नहीं मिलता!

आकेले  ही  चलना  है  शायद नशीब में;
इसीलिए तो   कोई हमसफ़र नहीं मिलता! 

दो कदम कोई साथ चले मेरे भी,
रही अगर कोई उम्र भर नहीं मिलाता !

पैगाम


पैगाम  लिए  फिरता हूँ कोई दर नहीं मिलता ! 
भटकता  हूँ दर-दर मगर घर  नहीं मिलता!

आकेले  ही  चलना  है  शायद नशीब में;
इसीलिए तो   कोई हमसफ़र नहीं मिलता! 

दो कदम कोई साथ चले मेरे भी,
रही अगर कोई उम्र भर नहीं मिलाता !

छोड़ दो प्रसाद दिन में तारे देखना !

चमकेंग किसी दिन तो सितारे देखना !
साचा होंगे कभी सपने भी हमारे देखना !

उनको देखना ,मेरा इस तरह देखना;
डूबते किस्ती का जैसे किनारे देखना !

फांकाकासी देती है सुकून क्या जिंदगी में;
बना तुम मेरी तरह बंजारे देखना !

जब भी देखा तुने , मेरा ऐब ही देखा ;
जुल्म है तेरा यूँ आधे नज़ारे देखना !

जब कोई ठुकराएगा तुमको ,तुम्हारी तरह ;
कम आयेंगे मेरे अंशु तुम्हारे देखना,

वो पराये हो गए ,उनकी आरजू न कर ;
छोड़ दो प्रसाद दिन में तारे देखना !

मथुरा प्रसाद वर्मा "प्रसाद"

घटायें तो घिर आती है, बरसात नहीं होती !

बेगानों से गुजर जाते है कोई बात नहीं होती !
हम उनसे रोज मिलते है मगर मुलाकात नहीं होती ।

सूखे बंजर खेत जैसी जिंदगी का बेहाल है;
घटायें  घिर तो आती है, मगर बरसात नहीं होती ।

भाग-दौड़, खीचा-तानी ओर थकान भरे ये दिन;
सहर की गलियों में क्या रात नहीं होती !

वो कह गई होती है ,सब की अपनी मजबूरियां
कोई तमाम उम्र किसी के साथ नहीं होती ।

न होता गम ,न खुसी ,न आँशु, न हंसी 
जब आदमी के दिलों में जज्बात नहीं होती।

प्रसाद" नाकामियों में खो न देना हौसले
हमेशा गर्दिशों में हालत नहीं होती ।

मथुरा प्रसाद वर्मा "प्रसाद"

अम्बर को बाँटने वोलों .!


जमी बाँट कर अम्बर को बाँटने वोलों .!
गाँव,गली,मोहल्ला, सहर को बाँटने वालों !

किस तरह होते हैं जिंदगी के चिथड़े;
देख लो आकर मेरे घर को बाँटने वालों !

खुशियों के चरागों को कभी बाट कर के देखो ;
अँधेरी  रातों में दर को बांटने वालों !.

मत करो दूर किस्तियो को लहरों से
टुकड़ो टुकड़ों में समन्दर को बांटने वालो !

नफ़रत के आग में खुद तुम ही जल जावोगे
नवाजवां हाथों में खंजर को बांटने वालों !

प्यार के नाम पर क्या क्या इम्तहान दूँ 
दीवाने प्रसाद क जिगर को बाँटने वालों!

                मथुरा प्रसाद वर्मा "प्रसाद"

भूल कर लेरी गलियां वो किधर जायेगा !


भूल कर लेरी  गलियां वो किधर जायेगा ! 
तेरी आरजू में जी रहा  था, मर जायेगा !

 तू एक नज़र मुस्कुरा के  देख तो ले   
बदनसीबों का मुकद्दर स्वर जायेगा !

हुस्न-ओ-जोवानी पे मत उन गुमान कर
माटी का खिलौना है बिखर जायेगा ! 

मौत आनी आये, मगर मौत के ख्याल 
आदमी क्या आदमी से दर जायेगा 

काँटों से दामन बचाता रहा  था 
फूलो से बचाकर नज़र जायेगा ?

जद्दो जहद में गुजारी तमाम उम्र ,
थक गया है प्रसाद अब घर जायेगा !
      
                   मथुरा प्रसाद वर्मा "प्रसाद"

आंधियां तेज है मत अकड़ झुक !


सरफ़रोसों की प्रजातियाँ विलुप्त हुई,
आंधियां तेज है, मत अकड़ झुक ।

सर सलामत रहा तो फिर देखा जायेगा,
सर उठाने का वक्त  आएगा रुक !

महफिलों में मची है,कव्वों की काव-काव,
कौन सुनेगा यहाँ कोयल की कुक !

इसलिए की अखबारों की सुर्ख़ियों  में नाम हो,
गिरेबान मत झाक ,आसमां पे थूक !

शेर की दहाड़ अब गए दिनों की बात है,
आज कल फैसन में है कुत्ते की भूंक !

सच बोला बेटा तो फिर जुटे खायेगा,
झूठ न बोल सको   तो रहो सदा मूक !

रोटियां जिनके लिए फ़क्त खेलने की चीज है,
वो क्या जाने किसी बच्चे का भूख !

लो सबक "प्रसाद" उनकी मक्कारियों से ,
जिनके तिजोरियों में बंद है ज़माने का सुख!
  

                             --मथुरा प्रसाद वर्मा "प्रसाद"

आदमी,आदमी होता है,खुदा नहीं होता .


लोग कहतें है मेरे जलने पे
 हर जलने वाला समां नहीं होता

 मेरे सर पे ये इलजाम है कि;
 मैं जलता हूँ तो धुंवा नही होता.

 पूछते  हो मेरा जिगर चिर-चिर कर 
 दर्द मुझको  कहाँ कहाँ नहीं होता .

 फिरतें है हम जो दर्द  लेकर , 
सुना  है उस ज़ख़्म का कहीं दवा नहीं होता

. दफन हो जाते है सीने में ही , 
मेरे अरमान अब जवां नहीं होता .

सुबह जिसकी खुसबू जगती है मुझको ;
 साम तलक वो बागबां नहीं होता .

 क्या ?कहता नहीं हूँ फकत इसी लिए
 वफ़ा मेरा वफ़ा नहीं होता .

बुलंदियों से गिर कर सिखा है प्रसाद  ; 
आदमी,आदमी होता है,खुदा नहीं  होता . 
 

                                                     मथुरा प्रसाद वर्मा प्रसाद 

कोई लुट कर मेरा दिवाली चला गया !


धुंवा ही धुंवा में बुझा हुवा चिराग हूँ ! 
कोई  लुट कर मेरा दिवाली चला गया !

इस बाग में लौट कर बहार क्या आयेगी,
सुलगता हुआ छोड़ जिसे माली चला गया !

दीवारों की सिसकियाँ यहाँ कौन सुनेगा ?
इस  आँगन से रोता हुआ खुसहाली चला गया !

मेरे इस सवाल का जवाब  देगा कौन 
एक सवाल बन कर सवाली चला गया !

आया थो तेरी दुनियां में बड़ी आरजू लेकर;
प्रसाद' हाथ  पसारे वो खाली चला गया !

                 ----- मथुरा प्रसाद वर्मा 'प्रसाद'

दीपक


रात हो गई है और गहरी,
  और काली , और भयावह !
दीपक तेरे जाने के बाद .


जब तुम न थे \
कोई उम्मीद भी न थी  
अब \
आदत सी हो गई उजाले की \
तुम्हारे साथ 


तुम्हारे लौ के साथ 
एक aasha जगी थी 
ह्रदय के अंधियारी कोठरी में 
जो न बुझी अब तक,

कौन जनता था ?
तुम छलिया हो /
तुम्हे चाहिए नित तेल-बाती
मेरे आँगन में जलने के लिए.

किन्तु अभावों से भरे इस जीवन में 
कोई कैसे जिए किसी और के लिए
निः स्वार्थ भाव से 
ह्रदय तक को तो धड़कने के लिए 
चाहिए सांसे 

और तुम तो फिर भी तुम थे 
कब तक जलाते मेरे लिए 
सिर्फ मेरे लिए 
निः स्वार्थ भाव से !

कोई हादसा हो गया होगा !


कोई हादसा हो गया होगा !
वो चलते-चलते सो गया होगा !

बदहवास गलियों में फिरता है,
कोई अपना खो गया होगा !

दुशमनो को मेरे फुरशत नहीं है,
कोई दोस्त ही कांटे बो गया होगा !

वो आज-कल मुंह छिपता रहता है,
रूबरू आईने से हो गया होगा !

प्रसाद' मेरा कफन अब भी गिला है,
कोई छुप-छुप के रो गया गया होगा !

थोड़ी कमी रहे मौला !


सब  हो  मगर  थोड़ी कमी रहे मौला ।
ताकि आदमी फकत आदमीं रहे मौला ।

तू उड़ने को चाहे आसमान दे  दे 
पांवों तले मगर जमीं रहे मौला ।

हर ओठों को दे इक खुसनुमा मुसकान 
और नैनो में  थोड़ी सी नमी रहे मौला ।

तू रोटी लिख सब के नसीब में ,
भूख भी मगर लाज़मी रहे मौला ।

 सुबह जब मैं अखबार देखता हूँ
क्यों लगता है के तुम नहीं रहे मौला ।

सुनने वाले प्रसाद जब तक रहेंगे
आपनी महफ़िल यूँ ही जमीं रहे मौला ।

खतरा है !


नई पीढ़ी के हाथों में , बन्दुक थमा दो खतरा है !
बच्चों को भी हिंसा का पाठ पढ़ा दो  खतरा है !

रोटी न हो शिक्षा न हो , पर हथियार जरुरी है,
खेतों और खलिहानों में बारूद उगा दो खतरा है !

कौन आसामी,कौन बिहारी और हिन्दू ,मुसलिम कौन ?
घर-घर में नफरत की दिवार उठा दो खतरा है !

हर पेट मांगेगी रोटी, हर हाथ मांगेगा काम
बेहिसाब बढ़ी आबादी, गोली चलवा दो खतरा है !

महलों में रहने वाले वो  चोर हमसे कहते है,
घर में कहीं न आग लगा दे, दिया बुझा दो खतरा है !

          -------- मथुरा प्रसाद वर्मा "प्रसाद"

सपने बड़े निराले देंगे !


सपने बड़े निराले देंगे ! 
हर रोज़ नए घोटाले देंगे !

हम राजनेता है, इस देश को,
बीवी, बच्चे, सेल देंगे !

चावी दे दे कर चोरों को ,
मुफ्त में सबको ताले देंगे!

घासलेट मह्गीं है तो क्या ?
नै दुलहन को जलाने देंगे!   

कम न दे सके तो लोगों को 
त्रिशूल, तलवार, भाले देंगे !

सीमेंट , रेट,छड कने वाले 
भूखे को क्या निवाले देंगे!

अखबार चलने वाले बस
रोज़ नए मसलें देंगे !

घर  अपना जला जला के  प्रसाद  
कब  तक दूसरो को उजाले देंगे!

चल गाँव अपने ,ये बेगानों का सहर है 
ये रोज जिगर को छालें देंगे !

                                              मथुरा प्रसाद वर्मा ' प्रसाद' 

छोटा आदमी हूँ छोटी बातें करता हूँ !


मैं कहाँ  किसी से झूठे वादे करता हूँ !
छोटा आदमी हूँ छोटी बातें करता हूँ !

पसीने में पिघलाता हूँ अपने तन को 
मैं अपने दिन को यूँ ही   राते करता हूँ !

आने वाले कल की मूरत गढ़ना चाहता हूँ
मैं तकदीर पर हथोड़े से घातें करता हूँ !

कौन रखता हैं खंजर बगल में क्या जानूं
मैं तो हंस के सबसे मुलाकाते करता हूँ

मैं चाँद को अपना पेट दिखा कर
रोटियों में चाँद तारों के नज़ारे करता हूँ!

खुद ही खोया रहता हूँ लहरों में कहीं और , 
दूसरों के किस्तियों को किनारे करता हूँ! 

वन्दे मातरम !


भारत माता का है दुलार  वन्दे मातरम !
हम नवजवानों के दिलों का तार वन्दे मातरम !

वो न हिन्दू थे ,न मुस्लमान ,न सिख थे ,न पारसी ,
जो झेलते थे गोलियां पुकार वन्दे मातरम !

जो जालिमों के सामने मुल्क को बाधें रखा
आजाद वतन में हुवा क्यूँ बेकार वन्दे मातरम !

तेरे खून में देखना ,फिर उबल आजायेगा ,
कह के तो देख दिल से एक बार वन्दे मातरम !

अब बाज़ आ, छोड़ो सियासत , इस पर तो मेरे हमवतन 
चाँद वोटों के खातिर न बेच सरे बाज़ार वन्दे मातरम !

ए मेरे भाई भला तू क्यूँ मुकर रहा 
आज तो कह रहा है सारा संसार वन्दे मातरम !

माँ को माँ  कहने में जिनको शर्म आती हो 'प्रसाद''
कह नहीं सकता कभी वो गद्दार वन्दे मातरम !

भला सा आदमी हूँ

 बहरे रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन
2122, 2122, 2122 

आदमी हूँ मैं भला  सा आदमी हूँ.
हाथ अपनों के छला  सा  आदमी हूँ । 

फूँक कर  के छाछ  पीता  हूँ मगर क्यों 
दूध से  फिर भी जला  सा आदमी हूँ । 

रात आहट  सुन जरा सा कांप  जाता 
मै उजालों से डरा सा आदमी हूँ । 


इन दिनों हूँ मैं खजूर पर लटक रहा
आसमानो  से  गिरा सा आदमी हूँ  । 


भाग कर दुनियां कहाँ  तक आ गई है
मैं किनारे पर खड़ा  सा आदमी हूँ  । 

रोटियों  ने नींद रातों  की 
 उड़ा दी 
भूख मरता  मैं  दला  सा आदमी  हूँ । 


एक ठोकर  मार तू भी  माथ  मेरे  
पाँव तेरे  मैं पड़ा  सा आदमी हूँ। 

        ------- मथुरा प्रसाद वर्मा 'प्रसाद'' 

अपने हालत पे यूँ लाचार हो गए हैं.


अपने  हालत  पे  यूँ लाचार  हो गए  हैं.
आम  थे  कभीआचार हो गए  हैं.

अपनी आजादी पे किसकी नज़र लगी प्यारे 
उम्र भर के लिए गिरफतार हो गए हैं . 



भूख लगी हमने तो  रोटी क्या मांग ली,
उनकी निगाहों में गुनहगार हो गए हैं .

वो  देने  आया था दर्देदिल का दवा हमें
सुना है इन दिनों बीमार हो गया  हैं.

सुना है कुछ बेईमान लोगों ने कैसे ,
कुछ जोड़ तोड़ की है ओर सरकार हो गए है 


दुवा  मांगी थी कभी खुशियों की मैंने 
उसी दिन से मेरे हाथ बेकार हो गए है 

ढाई इंच मुस्कान

सुरज बनना मुश्किल है पर , दीपक बन कर जल सकते हो। प्रकाश पर अधिकार न हो, कुछ देर तो तम को हर सकते हो । तोड़ निराश की बेड़ियाँ, ...