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उजाले के फरेब

वो रौशनी ओढ़ कर,
 अन्धियारे को
 छलना चाहता था।

वो किरण को अपने चेहरे पर,
मलना चाहता था।

वो पगला था ,
 दिए की तरह
जलना चाहता था ।

सच्चाई के पथ
 पर अकेले,
चलना चाहता था।

उसने सीखा था
जीवन से ,
सिर्फ अन्धियारे से डरना।

बहुत मुश्किल होता है
बिना तेल और बाती के जलना।

वो नहीं जनता था
 उजाले के फरेब को।

उजाला टटोलती है,
आदमी के जेब को।

उजाले के चकाचौंध ने
हर आदमी को छला है।

पतंगा है तो
कभी न  कभी
जरूर जला है ।

वो गिरा है
अक्चकाकर वहाँ,
जहाँ उजाले का घेरा है।
और
तब से अब तक
 उसके आँखों में
सिर्फ अँधेरा है।

मथुरा प्रसाद वर्मा "प्रसाद"

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