चोट बाहर से भीतर सहारा दिया।
जब भवँर में फँसा, तब किनारा दिया,
दूर मंजिल से मैं जब भटक था गया,
आप ने उंगलियों का इशारा दिया।
थक के हारा जो बाधा से डर कर रहा।
जिसने हिम्मत न की वो भी घर पर रहा।
मैं गिरा और उठ कर चला ठौर तक,
आप का हाथ मेरे जो सर पर रहा।
रोज उंगली पकड़ कर चलाया मुझे।
गिर गया चोंट खा कर, उठाया मुझे।
दौड़ता क्या कभी, हार कर हौसला,
जीतना आप ही ने सिखाया मुझे।
ना नयन झुक सके ना ये सर ही झुका।
कारवां जो चला फिर कभी ना रुका।
राह रोके बहुत दुश्मनो ने मगर,
तीर सध कर निशाने से फिर ना चुका।
देख ले तू भी सपना कहाँ पायेगा।
हौसला तोड़ कर, मेरा ले जाएगा।
ये सजर मेरे भीतर लगा वो गया,
डाल काटो नया साख फिर आएगा।
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