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गजल : रूठ कर मान जाने से क्या फायदा।

212 212 212 212। ऐसे झूठे बहाने से क्या फायदा। रूठ कर मान जाने से क्या फायदा। प्यार है दिल में तो क्यों न महसूस हो, है नहीं फिर जताने से क्या फायदा। थी जरूरत तभी आप आये नहीं,  आप के रोज आने से क्या फायदा। भूखे थे तब मिला दो निवाला नहीं, मर गयी भूख खाने से क्या फायदा। आ सके ना किसी के किसी काम के, फिर अमीरी दिखाने से क्या फायदा। धर पे है नहीं छाँव माँ बाप को, इतने पैसे कमाने से क्या फायदा।...

जख्म जितने मिले थे हरा है अभी

212 212 212 212 जख्म जितने मिले थे हरा है अभी। दर्द है कम मगर दिल डरा है अभी। आशुओं को बहा दूँ इजाजत नहीं, ऐ जमाने नहीं दिल भरा है अभी। तुम भी मासूम थे हम भी मासूम हैं, वो भी मासूम था जो मरा है अभी। दिल जला है मेरा इश्क के नाम पर, है ये सोना नहीं पर खरा है अभी। जिनके हाथों ने सदियों पिया है लहू, छूटा तलवार पर उस्तरा है अभी। चाहता था कि मैं जी हुजूरी  लिखूं। उंगलियों ने बगावत करा है अभी।

गजल : मेरे भीतर जो बागी है वो अक्सर सर उठाता है।

कभी वो चीखता है और कभी पत्थर उठाता है। वो लड़ता है जुलुम से जो कहीं क्या घर उठाता है। है मुश्किल पर पिला कर मैं उसे खामोश रखता हूँ, मेरे भीतर जो बागी है वो अक्सर सर उठाता है। शहर आता है चलकर गाँव से जब भी कोई लड़का, सुना है सबसे ज्यादा सर पे अपने डर उठता है। बड़ा चालाक है स्वारथ में जिसके चांटता तलवा, भरोसा जिसने की उस पीठ में खंजर उठाता है। सियासत उन नए चेहरों को अक्सर ढाँक देती है, के हक में जो गरीबों के, ही मुद्दे हर उठाता है। बहुत मजबूर होकर जो, कभी कुछ बोलना चाहा, मुहब्बत है नहीं, पर है, ये वो कहकर उठाता है। तभी महफूज रहता है के रट कर बोलता है जब, शिकारी काटता है जो परिंदा पर उठाता है।