कभी वो चीखता है और कभी पत्थर उठाता है।
वो लड़ता है जुलुम से जो कहीं क्या घर उठाता है।
है मुश्किल पर पिला कर मैं उसे खामोश रखता हूँ,
मेरे भीतर जो बागी है वो अक्सर सर उठाता है।
शहर आता है चलकर गाँव से जब भी कोई लड़का,
सुना है सबसे ज्यादा सर पे अपने डर उठता है।
बड़ा चालाक है स्वारथ में जिसके चांटता तलवा,
भरोसा जिसने की उस पीठ में खंजर उठाता है।
सियासत उन नए चेहरों को अक्सर ढाँक देती है,
के हक में जो गरीबों के, ही मुद्दे हर उठाता है।
बहुत मजबूर होकर जो, कभी कुछ बोलना चाहा,
मुहब्बत है नहीं, पर है, ये वो कहकर उठाता है।
तभी महफूज रहता है के रट कर बोलता है जब,
शिकारी काटता है जो परिंदा पर उठाता है।
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