Wednesday, 18 May 2016

तेरे कदम भी बहके क्यों?

फूल हूँ ये गुमान था तो,
मेरी गली में महके क्यों?

मैं हुआ मदहोश था पर,
तेरे कदम भी बहके क्यों?

अगर घटाएं घिर आये तो,
एक बून्द की आस न हो?

छलकते गागर को देखूं ,
क्यों थोड़ी भी प्यास न हो?

   प्यास मेरा गुनाह था पर,
   गगरी तेरी छलके क्यों?

माना अंधियारे में जीने की,
मेरी अपनी आदत थी।

एक दिया जले इस आँगन में,
यह भी तो मेरी चाहत थी।

   मुझे चाह थी एक किरण की
  तुम शोला बन दहके क्यों?

रेगिस्तान मेरा मन था,
पतझर ही था मेरा जीवन।

मान विधाता की नियति,
कभी न चाहा मैंने उपवन।

   मेरे आँगन के बाबुल में,
कोई विहंग फिर चहके क्यों।।



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