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पलके बिछाएं हूँ अब तक !

उनके चाहत के सपने सजाएँ हूँ अब तक ! उनके यादों को सिने में बसाये हूँ अब तक !  वो मासूम चेहरा, वो झील सी गहरी आँखें ; वो उनका मुस्काना ,वो उनका शर्माना, भोली सूरत को आँखों में छुपाये हूँ अब तक ! छुप-छुप के हम फिर  हथेली से अपना सहारा छुपाना ; कुछ भी तो नहीं भुला पाए हूँ अब तक ! वो जागी जागी, रातें वो तेरी बातें ; वो जुदाई के दिन , और वो मुलाकातें ; उन्ही यादों में कहाँ  ,  सो पाए हूँ अब तक ! प्यासी-प्यासी सी मेरी भीगी  निगाहें ; ताकती रहती है तेरी वो सुनी राहें ;  तेरी राहों में पलके बिछाएं हूँ अब त क !

उजाले के फरेब

वो रौशनी ओढ़ कर,  अन्धियारे को  छलना चाहता था। वो किरण को अपने चेहरे पर, मलना चाहता था। वो पगला था ,  दिए की तरह जलना चाहता था । सच्चाई के पथ  पर अकेले, चलना चाहता था। उसने सीखा था जीवन से , सिर्फ अन्धियारे से डरना। बहुत मुश्किल होता है बिना तेल और बाती के जलना। वो नहीं जनता था  उजाले के फरेब को। उजाला टटोलती है, आदमी के जेब को। उजाले के चकाचौंध ने हर आदमी को छला है। पतंगा है तो कभी न  कभी जरूर जला है । वो गिरा है अक्चकाकर वहाँ, जहाँ उजाले का घेरा है। और तब से अब तक  उसके आँखों में सिर्फ अँधेरा है। मथुरा प्रसाद वर्मा "प्रसाद"

याद तुम्हारी आती है।

कोई भवरा गाता है जब, जब कोई कली शरमाती है। खिल उठती है कली कोई, गलियाँ महक जब जाती है। तो सच प्रिये! याद तुम्हारी आती है। चलती है बसन्ती मन्द पवन, झूम उठता है तन मन। चिड़ियों की सुन युगल तान जब साम ढल जाती है। तो सच प्रिये! याद तुम्हारी आती है। मतवाला हो जाता ये गगन। झूम कर बरसता जब सावन। घुमड़-घुमड़ कर काली घटा, जब  धरती पर छा जाती है। तो सच  प्रिये ! याद तुम्हारी आती है। ऊँचे-ऊँचे परवत शिखर पर , नित बहते है जहां निर्झर। दूर क्षितिज के छोर पर जहां नभ् भी झुक जाती है। तो सच प्रिये! याद तुम्हारी आती है। कभी तारों की  बारातों में। जब देखूं चाँदनी रातों में। करती चाँद अठखेली जब बादल में छिप जाती है। तो सच प्रिये! याद तुम्हारी आती है।। दूर कहीं जब गाँवों में। बजती है पायल पावों में। आकर सजन की बाँहों में नववधू कोई शरमाती है।। तो सच प्रिये! याद तुम्हारी आती है।।

अरे सावन ! तुम क्यों आते हो।

बादल बन कर छा जाते हो। रिमझिम बरखा बरसाते हो। प्रिय मिलन की आश जगा कर बिरहन को तरसाते हो।              अरे सावन! तुम क्यों आते हो। ला कर  शीतल पुरवाई तुम, डाल डाल  महकते हो। विरहा मन मेें आग लगाकर तुम क्यों मुझे रुलाते हो।           अरे! सावन तुम क्यों आते हो। प्रेम सुधा तुम बरसा कर वसुधा की प्यास मिटाते हो। और इधर तुम प्रेम बावरी के, मन की प्यास बढ़ाते हो।            अरे सावन! तुम क्यों आते हो।

मजबूर कवि

मैं अदना सा कवि, लिखने के सिवाय कुछ कर नहीं सकता। चीख सकता हूँ, चिल्ला सकता हूँ, मगर लड़ नहीं सकता। मरने के लिए हर रोज जी लेता हूँ मगर जिन्दा रहने के लिए एक बार मर नहीं सकता। कैप्शन जोड़ें

तेरे कदम भी बहके क्यों?

फूल हूँ ये गुमान था तो, मेरी गली में महके क्यों ? मैं हुआ मदहोश था पर, तेरे कदम भी बहके क्यों? अगर घटाएं घिर आये तो, एक बून्द की आस न हो? छलकते गागर को देखूं , क्यों थोड़ी भी प्यास न हो?    प्यास मेरा गुनाह था पर,    गगरी तेरी छलके क्यों? माना अंधियारे में जीने की, मेरी अपनी आदत थी। एक दिया जले इस आँगन में, यह भी तो मेरी चाहत थी।    मुझे चाह थी एक किरण की   तुम शोला बन दहके क्यों? रेगिस्तान मेरा मन था, पतझर ही था मेरा जीवन। मान विधाता की नियति, कभी न चाहा मैंने उपवन।    मेरे आँगन के बाबुल में, कोई विहंग फिर चहके क्यों।।

मुक्तक

नजर में हो कोई परदा, नजारा हो तो कैसे हो ।। कोई जब डूबना चाहे , किनारा हो तो कैसे हो।। किसी के हो न पाये तुम, यहां पल भी मुहब्बत में,  बताओ तुम यहाँ कोई, तुम्हारा हो तो कैसे हो।

प्रथम स्टेट जम्बूरी डिमरापाल,जगदलपुर की यादें।

यादें