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गजल : हम कभी आम थे अब तो आचार हैं।

२१२ २१२ २१२ २१२  अपने   हालात पे   यूँ ही  लाचार है  ।    हम कभी आम थे  अब  तो आचार  हैं । है ये किसकी नजर आके हमको लगी , उम्र भर के लिए हम गिरफ्तार है । भूख हमको लगी रोटियाँ मांग ली, तब से उनके नजर ने गुनहगार हैं  ।   जो दवा दे गया दर्दे दिल का हमें , सुन रहा इन दिनों वो भी बीमार हैं  । चोर सब मिल गये पहरेदारों से फिर , की सियासत जरा अब वो  सरकार है  । थी दुवा मांग ली चंद खुशियाँ मिले, हाथ उस दिन से दोनों ही बेकार है  ।

मेरी कविता

ऐ मेरी कविता ! ऐ मेरी कविता  ! मैं सोचता हूँ लिख डालूं , तुम पर भी एक कविता !  रच डालूं  अपने बिखरे कल्पनाओं  को   रंग डालूं  स्वप्निल इन्द्र धनुषी रंगों से, तेरी चुनरी ! बिठाऊँ शब्दों की डोली में और उतर लाऊँ   इस धरा पर ! किन्तु मन डरता है ! ह्रदय सिहर जाता है  तुम्हे अपने घर लाते हुए ! कि कहीं तुम भी  टूट न जाओ, उन सपनों की तरह  जो  बिखर गए टूट कर !  

मुक्तक

ज़माना छोड़ दे तन्हा, नजर सायें नहीं  आये, दुवा  करना कभी लेकिन कि अपना साथ न छूटे । भले मझधार हो कश्ती कहर तूफान बरपाए , मगर तुम हौसला रखना हमारा  हाथ ना  छूटे। सदा तुम  मुस्कुराना पर  तुम्हारे मुस्कुराने से, रहे बस ख्याल इतना सा,  किसी का दिल नहीं टूटे । ये महफ़िल है तो महफ़िल में  शिकायत भी बहुत होगी, किसी के रूठ जाने से  मगर ये महफ़िल नहीं टूटे।

मुक्तक शिक्षक दिवस

मुक्तक छत्तीसगढ़ी

  पहिली जाल बिछाही पाछू, सुग्घर चारा डार दिही। तोरे राग म गाना गाही, मया के मंतर मार दिही। झन परबे लालच मा पंछी,देख शिकारी चाल समझ; फाँदा खेले हावय जे हा,अवसर पा के मार दिही। चारा के लालच देखाही, फांदा खेल फँदाही रे। झन बन जांगर चोट्टा बैरी,इक दिन जान ह जाही रे। रोज कमा के खाथन सँगी,स्वाभिमान से जीथन जी, माथ नवा जे तरुवा चाँटय,जूट्ठा पतरी पाही रे। चारा के लालच देखाही, फांदा खेल फँदाही रे। देख चिरइ तँय लालच झन कर,तोला मार के खाही रे। कोन शिकारी हरय समझ ले,दाना कइसे फेके हे, जे हा जतका लालच करही,पहिली उही फँदाही रे। बन के जे हा जाँगर चोट्टा, फ़ोकट पा के खाही रे। जे जतका लालच मा परहीपहिली उही छँदाही रे। देख न बैरी आज शिकारीजंगल के रखवार बने, ओसरी पारी अवसर पा केसबला मार के खाही रे।

एक मुक्तक

सफर में बस चुनौती हो, न कोई भी बहाने हो। गगन के पार जाने तक उड़ाने ही उड़ाने हो। नए पँखो को मेरे बस नया तुम हौसला देना। शजर हो जो छितिज के पार मेरे आशियाने हो।

गजल : रूठ कर मान जाने से क्या फायदा।

212 212 212 212। ऐसे झूठे बहाने से क्या फायदा। रूठ कर मान जाने से क्या फायदा। प्यार है दिल में तो क्यों न महसूस हो, है नहीं फिर जताने से क्या फायदा। थी जरूरत तभी आप आये नहीं,  आप के रोज आने से क्या फायदा। भूखे थे तब मिला दो निवाला नहीं, मर गयी भूख खाने से क्या फायदा। आ सके ना किसी के किसी काम के, फिर अमीरी दिखाने से क्या फायदा। धर पे है नहीं छाँव माँ बाप को, इतने पैसे कमाने से क्या फायदा।...

जख्म जितने मिले थे हरा है अभी

212 212 212 212 जख्म जितने मिले थे हरा है अभी। दर्द है कम मगर दिल डरा है अभी। आशुओं को बहा दूँ इजाजत नहीं, ऐ जमाने नहीं दिल भरा है अभी। तुम भी मासूम थे हम भी मासूम हैं, वो भी मासूम था जो मरा है अभी। दिल जला है मेरा इश्क के नाम पर, है ये सोना नहीं पर खरा है अभी। जिनके हाथों ने सदियों पिया है लहू, छूटा तलवार पर उस्तरा है अभी। चाहता था कि मैं जी हुजूरी  लिखूं। उंगलियों ने बगावत करा है अभी।

गजल : मेरे भीतर जो बागी है वो अक्सर सर उठाता है।

कभी वो चीखता है और कभी पत्थर उठाता है। वो लड़ता है जुलुम से जो कहीं क्या घर उठाता है। है मुश्किल पर पिला कर मैं उसे खामोश रखता हूँ, मेरे भीतर जो बागी है वो अक्सर सर उठाता है। शहर आता है चलकर गाँव से जब भी कोई लड़का, सुना है सबसे ज्यादा सर पे अपने डर उठता है। बड़ा चालाक है स्वारथ में जिसके चांटता तलवा, भरोसा जिसने की उस पीठ में खंजर उठाता है। सियासत उन नए चेहरों को अक्सर ढाँक देती है, के हक में जो गरीबों के, ही मुद्दे हर उठाता है। बहुत मजबूर होकर जो, कभी कुछ बोलना चाहा, मुहब्बत है नहीं, पर है, ये वो कहकर उठाता है। तभी महफूज रहता है के रट कर बोलता है जब, शिकारी काटता है जो परिंदा पर उठाता है।