कवि मथुरा प्रसाद वर्मा
Saturday, 7 January 2012
उम्मीद
उम्मीद उन्हें थी चाँद की,हम जमी के धुल निकले .
हमने चाह जहाँ फुल था वहां कटीले सुल निकले !
बेपनाह इन चाहतों ने ; चाहतों का दम है घोटा !
आरजू बाद रही रोज है , आदमी हो रहा है छोटा !
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