सोंचता हूँ मैं, जाने क्या चीज है आदमीं ।
ज़िन्दगी रोग है, मरीज है आदमीं ।
खुद को कभी जो पहचान पाया हो,
ऐसा भी कोई खुशनशीब है आदमीं ।
बटता गया है खुद को जिसके नाम पर,
उस खुदा से क्या वाकिफ है आदमी ।
जरा सी डोर टूटी, और सांसे थम गई,
मौत के कितने करीब है आदमी।
पर आदमी का फिर भी गुरुर न गया,
सचमुच बड़ा बत्तमीज़ है आदमी ।
ज़िन्दगी रोग है, मरीज है आदमीं ।
खुद को कभी जो पहचान पाया हो,
ऐसा भी कोई खुशनशीब है आदमीं ।
बटता गया है खुद को जिसके नाम पर,
उस खुदा से क्या वाकिफ है आदमी ।
जरा सी डोर टूटी, और सांसे थम गई,
मौत के कितने करीब है आदमी।
पर आदमी का फिर भी गुरुर न गया,
सचमुच बड़ा बत्तमीज़ है आदमी ।
सच में बहुत बदत्मीज है आदमी। बहुत सुन्दर रचना प्रासाद जी। बहुत बहुत बधाई।
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