Saturday 7 January 2012

भूख

भूख बढती गई , वो खाते  चले गए ।
उनके  पेट  में सब समाते चले गये ।
भूख उनका फिर भी न मिट सका ,
आदमी , आदमी को चबाते चले गए।

न अपनों की परवाह, न बेगानों की ।
भूख ऐसी होती है  बेइमानो की ।
ऐसे हैवान  भी छुपे है बीच हमारे  ,
पीते है खून जिन्दा इंसानों की ।

इसी भूख ने सरकार बना दिया ;
हर आदमी को गुनहगार बना दिया !
चलती रही विदेशी बैसाखी के सहारे 
देश को इतना  लाचार  बना दिया ।

कभी सड़क ,कभी जंगल,कभी पुल खा गए ।
कभी सीमेंट ,कभी रेट, कभी धुल खा गए ।
जय हो नेताओं तुम्हारे पेट की ;
ढकार न ली मगर सारा देश खा गए ।


2 comments:

  1. बड सुघ्घर कविता लिखथव वर्मा जी, अच्छा लागिस आपके ब्लॉग म आके.

    छत्तीसगढ ब्लॉगर चौपाल
    म आपके सुवागत हावय.

    ReplyDelete
  2. बस भैया आप मन के आशीष मिळत रहय ! गुरतुर गोठ से तो मोला प्रेरणा मिलिस हे ! नहीं तो मै ब्लोगिंग कहाँ कम्पुटर के क घलो नि जानत रेहेव !

    ReplyDelete

ढाई इंच मुस्कान

सुरज बनना मुश्किल है पर , दीपक बन कर जल सकते हो। प्रकाश पर अधिकार न हो, कुछ देर तो तम को हर सकते हो । तोड़ निराश की बेड़ियाँ, ...