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भूख

भूख बढती गई , वो खाते  चले गए ।
उनके  पेट  में सब समाते चले गये ।
भूख उनका फिर भी न मिट सका ,
आदमी , आदमी को चबाते चले गए।

न अपनों की परवाह, न बेगानों की ।
भूख ऐसी होती है  बेइमानो की ।
ऐसे हैवान  भी छुपे है बीच हमारे  ,
पीते है खून जिन्दा इंसानों की ।

इसी भूख ने सरकार बना दिया ;
हर आदमी को गुनहगार बना दिया !
चलती रही विदेशी बैसाखी के सहारे 
देश को इतना  लाचार  बना दिया ।

कभी सड़क ,कभी जंगल,कभी पुल खा गए ।
कभी सीमेंट ,कभी रेट, कभी धुल खा गए ।
जय हो नेताओं तुम्हारे पेट की ;
ढकार न ली मगर सारा देश खा गए ।


टिप्पणियाँ

  1. बड सुघ्घर कविता लिखथव वर्मा जी, अच्छा लागिस आपके ब्लॉग म आके.

    छत्तीसगढ ब्लॉगर चौपाल
    म आपके सुवागत हावय.

    जवाब देंहटाएं
  2. बस भैया आप मन के आशीष मिळत रहय ! गुरतुर गोठ से तो मोला प्रेरणा मिलिस हे ! नहीं तो मै ब्लोगिंग कहाँ कम्पुटर के क घलो नि जानत रेहेव !

    जवाब देंहटाएं

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