सोचता हूँ मैं ; जाने क्या चीज है आदमीं !
ज़िन्दगी रोग है , मरीज है आदमीं !!
खुद को कभी जो पहचान पाया हो ;
ऐसा भी कोई खुशनशीब है आदमीं !!
बटता गया है खुद को जिसके नाम पर ;
उस खुदा से क्या वाकिफ है आदमी !!
जरा सी डोर टूटी , और सांसे थम गई ;
मौत के कितने करीब है आदमी !
पर आदमी का फिर भी गुरुर न गया
सचमुच बड़ा बत्तमीज़ है आदमी !
ज़िन्दगी रोग है , मरीज है आदमीं !!
खुद को कभी जो पहचान पाया हो ;
ऐसा भी कोई खुशनशीब है आदमीं !!
बटता गया है खुद को जिसके नाम पर ;
उस खुदा से क्या वाकिफ है आदमी !!
जरा सी डोर टूटी , और सांसे थम गई ;
मौत के कितने करीब है आदमी !
पर आदमी का फिर भी गुरुर न गया
सचमुच बड़ा बत्तमीज़ है आदमी !
सच में बहुत बदत्मीज है आदमी। बहुत सुन्दर रचना प्रासाद जी। बहुत बहुत बधाई।
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