Thursday 20 October 2011

कौन ले जाता है सबेरा छीन कर गावों से !


सूरज  निकलता रहा हर दिन 
हर दिन लाल होता रहा आकाश 
पक्षी चहकते रहे'
हवाएं चलती रही 
झूमती  रही डालियाँ ।

उठता रहा धुवां 
सुलगती रही चिमनियाँ
चीखते रहे भोंपू 
दौड़ता रहा सड़क।

मगर क्यों 
अब भी अँधेरा है 
मेरे गाँव में ?

गाँव की पगडंडीयां
क्यूँ नहीं सिख।पाई रेंगना ?
क्यूँ नहीं जले चूल्हे
 अब तक झोपड़ों में ?
उजाला क्यों नहीं आता 
आखिर गावों में ?

क्या कभी न आएगा सूरज 
गावों में ?
मैं चिंतित हूँ !
कौन ले जाता है सबेरा 
छीन कर गावों से ?

मथुरा प्रसाद वर्मा 'प्रसाद'

No comments:

Post a Comment

ढाई इंच मुस्कान

सुरज बनना मुश्किल है पर , दीपक बन कर जल सकते हो। प्रकाश पर अधिकार न हो, कुछ देर तो तम को हर सकते हो । तोड़ निराश की बेड़ियाँ, ...