Thursday 20 October 2011

मोल !



कभी जनता, कभी सरकार बिकता है ।
कभी कुर्सी , कभी दरबार  बिकता है ।
हर चीज है यहाँ बिकाऊ दोस्तों ;
कोई छुप कर, कोई सरेबाजार  बिकता है ।

कभी शहर-शहर ,कभी गाँव-गाँव  बिकता है ।
कोई किलो-किलो ,कोई पाव-पाव   बिकता है ।
हर चीज की अलग-अलग कीमत है मित्रों;
कोई कौड़ियों में,कोई करोडो के भाव  बिकता है ।

कही खून, कहीं पसीना आज  बिकता है ।
कहीं पत्थर कहीं सोना कहीं ताज  बिकता है ।
सब कुछ तो लोग खरीदते है यारों ;
तभी तो माँ-बहनों का लाज  बिकता है ।

कहीं खस्सू, कहीं खुजली, कहीं दाद  बिकता है ।
कभी दवा , कभी दारू, कभी इलाज  बिकता है ।
लोकतंत्र हो जाता है बीमार मेरे साथी ;
जब अखबार वालों का आवाज  बिकता है ।

कोई ख़ुशी-ख़ुशी, कोई होकर मजबूर  बिकता है ।
कोई अपनों के लिए,होकर दूर  बिकता है ।
तकदीर के तराजू में तूल जाता है हर आदमी 
 आदमी है तो  जिंदगी में जरुर  बिकता है ।
        
                                मथुरा  प्रसाद  वर्मा 'प्रसाद'

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