Thursday 20 October 2011

दीपक


रात हो गई है और गहरी,
  और काली , और भयावह !
दीपक तेरे जाने के बाद .


जब तुम न थे \
कोई उम्मीद भी न थी  
अब \
आदत सी हो गई उजाले की \
तुम्हारे साथ 


तुम्हारे लौ के साथ 
एक aasha जगी थी 
ह्रदय के अंधियारी कोठरी में 
जो न बुझी अब तक,

कौन जनता था ?
तुम छलिया हो /
तुम्हे चाहिए नित तेल-बाती
मेरे आँगन में जलने के लिए.

किन्तु अभावों से भरे इस जीवन में 
कोई कैसे जिए किसी और के लिए
निः स्वार्थ भाव से 
ह्रदय तक को तो धड़कने के लिए 
चाहिए सांसे 

और तुम तो फिर भी तुम थे 
कब तक जलाते मेरे लिए 
सिर्फ मेरे लिए 
निः स्वार्थ भाव से !

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