Thursday 20 October 2011

एक मुठ्ठी भूख !


मुझे  भूख   नहीं  है  ,
नहीं  चाहिए मुझे  रोटी  ! 

प्यासा नहीं हूँ मैं !
पानी भी  नहीं चाहिए ;

कोई दे सके तो दे मुझे ;
एक   मुठ्ठी   भूख !
और एक चुल्लू  प्यास!

भूख वो जाओ आदमी को
बनता है आदमी !
प्यास वो जो सिखाती है 
आदमी को आदमियत !

मैं लौट जाना चाहतो हूँ ;
फिर उसी बर्बरता के युग में !
जहाँ आदमी होता था नंगा ;
नहीं पहनता था कपडे !
और नहीं झांकता था वो ;
कपड़ों में ढके , अनढके तन को !

भूखा होता था आदमी ;
पर कभी नहीं खता था 
आदमी, आदमीं को !
नहीं पीता था तब कभी ;
प्यासा आदमी भी 
आदमी के खून को !  


1 comment:

  1. भुख के उपर आपकी रचना बहुत ही सुंदर है सर जी।
    बहुत बहुत बधाई।

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