Thursday 20 October 2011

आदमी,आदमी होता है,खुदा नहीं होता .


लोग कहतें है मेरे जलने पे
 हर जलने वाला समां नहीं होता

 मेरे सर पे ये इलजाम है कि;
 मैं जलता हूँ तो धुंवा नही होता.

 पूछते  हो मेरा जिगर चिर-चिर कर 
 दर्द मुझको  कहाँ कहाँ नहीं होता .

 फिरतें है हम जो दर्द  लेकर , 
सुना  है उस ज़ख़्म का कहीं दवा नहीं होता

. दफन हो जाते है सीने में ही , 
मेरे अरमान अब जवां नहीं होता .

सुबह जिसकी खुसबू जगती है मुझको ;
 साम तलक वो बागबां नहीं होता .

 क्या ?कहता नहीं हूँ फकत इसी लिए
 वफ़ा मेरा वफ़ा नहीं होता .

बुलंदियों से गिर कर सिखा है प्रसाद  ; 
आदमी,आदमी होता है,खुदा नहीं  होता . 
 

                                                     मथुरा प्रसाद वर्मा प्रसाद 

No comments:

Post a Comment

ढाई इंच मुस्कान

सुरज बनना मुश्किल है पर , दीपक बन कर जल सकते हो। प्रकाश पर अधिकार न हो, कुछ देर तो तम को हर सकते हो । तोड़ निराश की बेड़ियाँ, ...