लोग कहतें है मेरे जलने पे
हर जलने वाला समां नहीं होता
मेरे सर पे ये इलजाम है कि;
मैं जलता हूँ तो धुंवा नही होता.
पूछते हो मेरा जिगर चिर-चिर कर
दर्द मुझको कहाँ कहाँ नहीं होता .
फिरतें है हम जो दर्द लेकर ,
सुना है उस ज़ख़्म का कहीं दवा नहीं होता
. दफन हो जाते है सीने में ही ,
मेरे अरमान अब जवां नहीं होता .
सुबह जिसकी खुसबू जगती है मुझको ;
साम तलक वो बागबां नहीं होता .
क्या ?कहता नहीं हूँ फकत इसी लिए
वफ़ा मेरा वफ़ा नहीं होता .
आदमी,आदमी होता है,खुदा नहीं होता .
मथुरा प्रसाद वर्मा प्रसाद
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