२१२ २१२ २१२ २१२ अपने हालात पे यूँ ही लाचार है । हम कभी आम थे अब तो आचार हैं । है ये किसकी नजर आके हमको लगी , उम्र भर के लिए हम गिरफ्तार है । भूख हमको लगी रोटियाँ मांग ली, तब से उनके नजर ने गुनहगार हैं । जो दवा दे गया दर्दे दिल का हमें , सुन रहा इन दिनों वो भी बीमार हैं । चोर सब मिल गये पहरेदारों से फिर , की सियासत जरा अब वो सरकार है । थी दुवा मांग ली चंद खुशियाँ मिले, हाथ उस दिन से दोनों ही बेकार है ।
ऐ मेरी कविता ! ऐ मेरी कविता ! मैं सोचता हूँ लिख डालूं , तुम पर भी एक कविता ! रच डालूं अपने बिखरे कल्पनाओं को रंग डालूं स्वप्निल इन्द्र धनुषी रंगों से, तेरी चुनरी ! बिठाऊँ शब्दों की डोली में और उतर लाऊँ इस धरा पर ! किन्तु मन डरता है ! ह्रदय सिहर जाता है तुम्हे अपने घर लाते हुए ! कि कहीं तुम भी टूट न जाओ, उन सपनों की तरह जो बिखर गए टूट कर !